Wednesday, September 19, 2012

लोभतंत्र

यह हमारे देश की कैसी विडंबना है कि जनता को सडक पर निकल कर आंदोलन करना होता है कि हमारे देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराया जाये, सरकारी सेवको पर कार्य का दायित्व एवं कार्य समयावधि को निर्धारित  किया जाये,  विदेशो में जमा  काला धन को देश में लाया जाये आदि कई ऐसे जनहित के कार्य हैं जिसके लिए अण्णा, बाबा रामदेव, अरविन्द केजरीबाल, किरण बेदी, कुमार विश्वास जैसे लोंगों ने जनता के सहयोग से कई आंदोलन किये। परंतु सरकार का विरोध इतना तीव्र हुआ मानो उन्होने कोई आतंकवादी कार्य कर दिया हो। पुलिस का व्यवहार में भी कोई बदलाव थोडा भी नही दिखता है, लगता है जैसे आज भी कोई विदेशी सेना से जंग हो रहा है। पुलिस जनता के पैसे पर निर्भर होती है, फिर जनता पर ही इतना अत्याचार क्यो।  वस्तुतः इन सब के पीछे राजनीतिक ताकते हैं, कार्यपालिका  में अधिकारियो आदि का स्थानांतरण  आदि का अधिकार राजनीतिक शक्तियो से छीन लेनी चाहिये। अब बहुत हो गया, लोकतंत्र के नाम पर ड्रामाबाजी। संसद में आंकडो के गणित पर देश को और कब तक अन्याय सहना होंगा। लोगो को अब उल्टा लडाई लडनी होगी कि देश में भ्रष्टचार के प्रचार-प्रसार पर लोंगो को सम्मानित करने का प्रबंध किया जाये, घुस लेना जन्मसिद्ध अधिकार कर दिया जाये। लोकतंत्र के स्थान पर लोभतंत्र को स्य़ापित किया जाये। एक वार तो इस पर काम की शुरुआत तो कर ली जाये। सरकार का समर्थन तो हासिल होंगा ही, फिर सरकार का समर्थन मिल जायेगा तो संसद में इस विधेयक को ध्वनि मत से पारित भी करा लिया जायेगा। बेचारी लोकतंत्र, लोभतंत्र के बहुमत से भारी मतो से तो हारेगी ही।

Tuesday, September 18, 2012

एक आस्था का अंत

आज बहुत दिनों के बात लिखने बैठा हूं। प्रयास पहले भी किया था परंतु असफल रहा। जब दर्द ज्यादा होता है तो मन भी सोच का साथ नहीं देता, शब्द तो अपाहिज होता ही है क्योकि गहरी अभिव्यक्ति का यह चित्रण भी नहीं कर पाता। ऐसे ही मेंरे ईश्वर का, जो मेंरे जीवन का ज्योति थे, मेरे परम पूज्य पिताजी का निधन दिनांक 12 मई,2012 को पटना के एक निजी अस्तपताल में हो गया जो मेंरे आस्था का अंत था। शायद मेंरे इस दुःख की अभिव्यक्ति के लिए आस्था शब्द का चयन उचित न हो, परंतु यह अभिव्यक्ति का कुछ तो यथार्थ का घोतक तो हो सकता है। मैं एक दिन पहले ही पटना पहुंचा था, मुझे देखकर वे काफी प्रयास कर कुछ अपनी अभिव्यक्ति प्रकट करना चाहे परंतु मैं कुछ समझ नही पाया। डाक्टर ने कहा कि आज तो वे काफी ठीक है और दवा का कुछ असर देखा जा रहा है, ईश्वर शायद साथ दें। परंतु ईश्वर राम के होते उनके पिता दशरथ की मृत्यु जब टल नहीं सकी और फिर मृत्यु तो कभी किसी की टली भी आज तक  नही, फिर वही हुआ जो सत्य है, केवल राम नाम ही सत्य है। आज तक कभी अपने पिताजी को कभी लंबी बीमारी में नही देखा, परंतु आज उनकी मृत्यु को देखा। फिर रंथी यात्रा, शमशान, चिता और सबकुछ भस्म। कुछ सवाल मेरी मां के थे जिसका उत्तर मेंरे पास बिल्कुल भी नहीं था। बेटा, अपने पापा को कैसे वहां अकेले में छोडं कर चले आये, अरे तुमलोगों के लिए कितना बेचैन हो उठते थे जब तुमभाई लोंग घर आने में थोडी देर भी कर दिया करते थे। बहुत से प्रश्न थे और सभी में मै निरुत्तर रह जाता था, शब्दों का स्थान आंखों में आसुओ ने ले रखा था। कहां खो जाता है मनुष्य। क्यों नहीं तलाश करने के बाद कोई मिल जाता। क्यो जीवन में मृत्यु का केवल एक ही बार अनुभव होता है। मां के प्रश्नो की तरह मेंरे भी कई प्रश्न है, परंतु मेंरे पास शब्दो का अभाव है, शायद वैसे शब्द भी नहीं गढे गये हो जिनका उत्तर सिर्फ आंखो में आंसू की धारा ......। बस जीवित रहता है एक धायल आस्था। पता नहीं यह आस्था का अंत भी कब हो जाये और शेष रह जाये फिर वहीं कई सारे प्रश्न जो मेंरी मां के रहे हैं।