Friday, October 5, 2012

सुख का सच

         और लोगो की तरह मैं भी भीख देने में सावधानी बरता करता हूं यथाः बिकलांग हो, लाचार हो, वृद्ध हो बगैर-बगैर। कुछ अगले जन्म का भी स्वार्थ कही-न-कही छुपा भी होता। हट्ठे-कट्ठे व्यक्ति को नसीहत देने की भी आदत पड़ गयी थी। एक दिन ऐसा ही हुआ कि कालीघाट मंदिर से निकला ही था कि एक हट्ठा-कट्ठा जवान-सा भीखारी मेंरे पीछे पड़ गया। मंदिर की भी अपनी एक अलग सायक्लोजी होती है। घुसने के पहले पंडितो की दलाली होती है और दर्शन करने के बाद भिखारियो की। दोनों में आखिर इस तरह का सामंजस्य कैसे स्वतः स्थापित होता है! सोचा कई बार परंतू उत्तर नहीं मिलता है, ठीक उसी तरह जैसे मृत्यु के समय शरीर से आखिर क्या निकल जाता है? कैसी अनुभूति होती है? आदि अनेक ऐसे अनुतरित प्रश्न।
हां, तो मै चर्चा कर रहा था, उस जवान-सा दिखने वाले भीखारी की जो मेंरे पीछे हाथ धो कर पड़ा था और मैं मन ही मन निश्चित कर चुका था कि इसे भीख मुझे नही देनी है। वैसे मैं जानता हूं कि आदमी का भूख आदमी का फर्क नही देखता। फिर मेरे और उस भीखारी में जो वार्तालाप हुई उसे क्रमबद्धता से रखने का प्रयास कर रहा है, यथाः --
      मै --  अरे भइया, क्यो मेंरे पीछे पड़े हो, कुछ भी तुम्हे नही दूंगा।
     भीखारी -- नही, साब, कुछ तो दे दो, भगवान तुम्हें खुश रखेगा।
     मै -- इतने हट्ठे-कट्ठे हो, शर्म नहीं आती भीख मांगते हुये। काम क्यो नही करते।
     भीखारी-- साब, काम करने से क्या होगा?
     मैं-- अरे भाई, काम करोगे तो कुछ खा तो पाओगे।
     भीखारी-- ठीक है साब, काम करुंगा तो पेट भर जायेगा, फिर?
     मैं -- और मेहनता करोगे तो फिर तन ढकने को वस्त्र भी कुछ न कुछ तो मिल ही जायेगा।
     भीखारी-- फिर ?
     मैं-- और मेहनत करोगे तो रहने के लिए कोई-न- कोई फिर घर भी हो जायेगा।
    भीखारी -- फिर ?
    मै -- फिर और मेहनत करोगे तो .... और मेहनत ..... फिर ....  फिर तुम्हे सुख मिलेगा।
    भीखारी-- मालिक, सुख भोगने के लिये क्या  इतना-इतना मेहनत आपको करना होता है, मैं तो वही सुख
                   बिना  मेहनत किये अभी ही भोग रहा हूं।
     सच, पुराने लोग ठीक ही कहा करते थे कि मंदिरो में मनुष्य को अध्यात्म का ज्ञान होता है। मैं भी सुख के लिये इतना क्यो आज तक भटकता फिर रहा था? यह मुझसे मांगता है और हम भगवान से, तो वाकई में हम भी क्या भीखारी ही हैं? मुझे लगा कि वह मेंरे लिये भीखारी नही, बल्कि वटवृक्ष है और मैं बुद्ध बन गया।


Wednesday, October 3, 2012

डा0 गदहा, एम.बी.बी.एस., एम.डी.

हरी घास सबको अच्छी लगती है और गदहा भी इसे कम पसंद नही करता। इसी हरी घास की तलाश में एक गदहा एक दिन मेडिकल कांलेज के कंपस में घुस गया। अपने बीच एक नये गदहे को पाकर सभी लोगों ने उसे घेर लिया। किसी ने प्रश्न किया कि तुम किस मंत्री के कजिन  के फुफरे भाई के बेटे हो? क्या चांसलर के कोटे से हो या किसी स्पेशल डोनेशन से आये हो? परंतु लोग प्रश्न तो किये जा रहे थे परंतु उत्तर देने का मौका भी तो नही दे रहे थे। किसी ने पुनः पूछा कि क्या तुम किसी कोटे से तो नही हो? वस्तुतः गदहा तो यह कहना चाह रहा था कि वह तो हरी घास की तलाश में अंदर घुस आया है, परंतु कोई उत्तर देने का भला मौका भी तो दे। उसी में से एक गंभीर सा दिखने वाला काफी उम्र दराज ने कहा- मित्रो, यह जैसे भी आया है हमलोग इसका स्वागत करते हैं। 
उस दिन से वह गदहा भी अब मेडिकल कालेज के कंपांउड में बिदकने लगा। गले में हर समय आला लटकाये तथा सफेद प्राउन पहने कभी इस डिपार्टमेंट तो कभी उस डिपार्टमेट में फुदकने लगा। घासें प्रभावित तो करती थी परंतु अब......। समय के अनुसार बदलाव आना तो स्वभाविक है। गदहा के अक्कडपन में भी  सनै-सनै वृद्घी होता जा रहा था। अचानक देखते-देखते दिन भी बीतते गये और परीक्षा की तिथि भी निकट  आ गयी। गदहा के तो मानो नथूने ही फूलने लगे। वह काफी घबरा गया। मोहल्ले में तो शर्म से किसी को कह भी तो नही सकता था। अपने सीनियर से अपने दुखरे का रोना रोया। सीनियर ने समझाया-' देखो, हमलोग मेडिकल के स्टुडेंट हैं, पढा नही, यह तो बाहर किसी को कह भी नही सकते। बेटा, अंदर यहां घुसना तो कठिन है परंतु यहां से बाहर निकलना और भी कठिन है। बिना डाक्टर बने तो निकल भी नहीं पाओगे, कोर्स तो है चार-पाच वर्ष का, परंतु किसी-किसी को तो आठ से दस वर्ष भी लग जाते हैं। यह इंजीनियरिंग थोडे है कि कंपसिंग होगा। यदि सरकारी नौकरी नही लगी, तो प्राइवेट नर्सिग होम तो है, अंत में तो फिर अपनी प्रैक्टिस जिन्दाबाद। तुम भोले हो इसलिये घबरा गये हो, वस्तुतः सब इतना ही पढे है।' फिर भी गदहा को इस बुद्ध के ज्ञान से कोई शांति नही मिली। प्रोफेसर से डिपार्टमेंट में मिला, उनके क्लिनिक में मिला। परंतु उत्तर में वही मिलता जो मरीजो को मिला करता--' ईश्वर पर भरोसा रखे, सब उनके हाथ में है।' जिज्ञासा जब न्यूटन को महान बना सकता है तो ....... और इसी जिज्ञासा ने उसे युनियन के कमरा तक पहुंचा दिया। उस गदहे की बेचैनी और भोलेपन को देख कर वहां बैठे लोगो ने जोरदार ठहाका लगाया, फिर बहुत प्यार से समझाया-- अरे मेंरे प्यारे भोले भाई, इतना मेडिकल का स्टुडेंड घबराते नहीं, जरा अक्ल से काम लो, वहां लेब वाय, वार्ड वाय, नर्स तो रहेगी ही, उन्हे ज्यादा ज्ञान है, बहुत सारा मदद कर देगें, फिर प्रोफेसर डाक्टर तो भगवान का ही रुप होते है, अपने दिन को याद कर अनदेखी कर देंगे। समझा की नही, कि अभी भी माथा में कचडा भरा है।' कुछ तो ज्ञान का चच्छु खुल गया। फिर तो वह गदहा किसी तरह लुढकते-फुदकते अंततः डाक्टर बन गया। लेकिन उस गदहे कि अंतरात्मा ने ही उससे प्रश्न किया कि तुम्हे तो कुछ वाकई मे आता नहीं फिर इलाज कैसे करोगे। इस बेचैनी में इस बार वह सीधे हेड आंफ डिपार्टमेट के कमरे में धुस गया और आखिर पूछ ही लिया--" सर मुझे डाक्टर की डिग्री तो वाकई में मिल गई है, परंतु सच तो यह है कि मुझे तो सूई तक देने नही आता है। फिर किस बीमारी मे कौन- सी दवा लिखुगा, यह भी तो नही जानता और फिर .......। प्रोफेसर साहब ने बीच मे ही टोका- छीः अब तो तुम डाक्टर बन गये और ऐसी बात कर रहे हो। यहां जो बोल दिये सो बोल दिये, भुल कर भी ऐसी बात किसी से नही करोगे। अरे भाई, मेडिकल रिप्रजेंटेटिव आखिर किस लिये होते हैं, वो तुम्हे बता दिया करेगे कि किस रोग में कौन सी दवा लगेगी। जो कंपनी ज्यादा कमिशन दे, उसी की दवा लिखना। समझे। फिर तुम तो वाकई में गदहा ही बने रह गये। किसी डाक्टर को देखो हो इंजेक्शन देते। अरे भाई. इसके लिये कंपांउडर, नर्स आदि होते है। यदि मजबुरी में देना भी पड जाये तो घुसेड देना, दर्द तो उसे होगा। और यदि खुदा न खास्ते मर गया तो इस देश के लोग काफी भाग्यवादी हैं, कहेगे, ड़ाक्टर बेचारा आखिर क्या करता, ईश्वर का यही होनी लिखा था, बेचारा डाक्टर तो अंत समय तक खुद  इतना प्रयास किया। फिर आपरेशन आदि में तो वार्ड बाय, नर्स आदि की मुख्य योगदान रहता है, तुम बिल्कुल गंभीर और कम बोलना। कोई तुम्हारे ज्ञान को फिर नही समझ पायेगा। फिर अंत में तो ईश्वर है ही।'
अब वह गदहा पूरे आत्मविश्वास से भर चुका था। फिर क्या था, वह गदहा पीडित मानवता की सेवा में चल पडा।