और लोगो की तरह मैं भी भीख देने में सावधानी बरता करता हूं यथाः बिकलांग हो, लाचार हो, वृद्ध हो बगैर-बगैर। कुछ अगले जन्म का भी स्वार्थ कही-न-कही छुपा भी होता। हट्ठे-कट्ठे व्यक्ति को नसीहत देने की भी आदत पड़ गयी थी। एक दिन ऐसा ही हुआ कि कालीघाट मंदिर से निकला ही था कि एक हट्ठा-कट्ठा जवान-सा भीखारी मेंरे पीछे पड़ गया। मंदिर की भी अपनी एक अलग सायक्लोजी होती है। घुसने के पहले पंडितो की दलाली होती है और दर्शन करने के बाद भिखारियो की। दोनों में आखिर इस तरह का सामंजस्य कैसे स्वतः स्थापित होता है! सोचा कई बार परंतू उत्तर नहीं मिलता है, ठीक उसी तरह जैसे मृत्यु के समय शरीर से आखिर क्या निकल जाता है? कैसी अनुभूति होती है? आदि अनेक ऐसे अनुतरित प्रश्न।
हां, तो मै चर्चा कर रहा था, उस जवान-सा दिखने वाले भीखारी की जो मेंरे पीछे हाथ धो कर पड़ा था और मैं मन ही मन निश्चित कर चुका था कि इसे भीख मुझे नही देनी है। वैसे मैं जानता हूं कि आदमी का भूख आदमी का फर्क नही देखता। फिर मेरे और उस भीखारी में जो वार्तालाप हुई उसे क्रमबद्धता से रखने का प्रयास कर रहा है, यथाः --
मै -- अरे भइया, क्यो मेंरे पीछे पड़े हो, कुछ भी तुम्हे नही दूंगा।
भीखारी -- नही, साब, कुछ तो दे दो, भगवान तुम्हें खुश रखेगा।
मै -- इतने हट्ठे-कट्ठे हो, शर्म नहीं आती भीख मांगते हुये। काम क्यो नही करते।
भीखारी-- साब, काम करने से क्या होगा?
मैं-- अरे भाई, काम करोगे तो कुछ खा तो पाओगे।
भीखारी-- ठीक है साब, काम करुंगा तो पेट भर जायेगा, फिर?
मैं -- और मेहनता करोगे तो फिर तन ढकने को वस्त्र भी कुछ न कुछ तो मिल ही जायेगा।
भीखारी-- फिर ?
मैं-- और मेहनत करोगे तो रहने के लिए कोई-न- कोई फिर घर भी हो जायेगा।
भीखारी -- फिर ?
मै -- फिर और मेहनत करोगे तो .... और मेहनत ..... फिर .... फिर तुम्हे सुख मिलेगा।
भीखारी-- मालिक, सुख भोगने के लिये क्या इतना-इतना मेहनत आपको करना होता है, मैं तो वही सुख
बिना मेहनत किये अभी ही भोग रहा हूं।
सच, पुराने लोग ठीक ही कहा करते थे कि मंदिरो में मनुष्य को अध्यात्म का ज्ञान होता है। मैं भी सुख के लिये इतना क्यो आज तक भटकता फिर रहा था? यह मुझसे मांगता है और हम भगवान से, तो वाकई में हम भी क्या भीखारी ही हैं? मुझे लगा कि वह मेंरे लिये भीखारी नही, बल्कि वटवृक्ष है और मैं बुद्ध बन गया।
हां, तो मै चर्चा कर रहा था, उस जवान-सा दिखने वाले भीखारी की जो मेंरे पीछे हाथ धो कर पड़ा था और मैं मन ही मन निश्चित कर चुका था कि इसे भीख मुझे नही देनी है। वैसे मैं जानता हूं कि आदमी का भूख आदमी का फर्क नही देखता। फिर मेरे और उस भीखारी में जो वार्तालाप हुई उसे क्रमबद्धता से रखने का प्रयास कर रहा है, यथाः --
मै -- अरे भइया, क्यो मेंरे पीछे पड़े हो, कुछ भी तुम्हे नही दूंगा।
भीखारी -- नही, साब, कुछ तो दे दो, भगवान तुम्हें खुश रखेगा।
मै -- इतने हट्ठे-कट्ठे हो, शर्म नहीं आती भीख मांगते हुये। काम क्यो नही करते।
भीखारी-- साब, काम करने से क्या होगा?
मैं-- अरे भाई, काम करोगे तो कुछ खा तो पाओगे।
भीखारी-- ठीक है साब, काम करुंगा तो पेट भर जायेगा, फिर?
मैं -- और मेहनता करोगे तो फिर तन ढकने को वस्त्र भी कुछ न कुछ तो मिल ही जायेगा।
भीखारी-- फिर ?
मैं-- और मेहनत करोगे तो रहने के लिए कोई-न- कोई फिर घर भी हो जायेगा।
भीखारी -- फिर ?
मै -- फिर और मेहनत करोगे तो .... और मेहनत ..... फिर .... फिर तुम्हे सुख मिलेगा।
भीखारी-- मालिक, सुख भोगने के लिये क्या इतना-इतना मेहनत आपको करना होता है, मैं तो वही सुख
बिना मेहनत किये अभी ही भोग रहा हूं।
सच, पुराने लोग ठीक ही कहा करते थे कि मंदिरो में मनुष्य को अध्यात्म का ज्ञान होता है। मैं भी सुख के लिये इतना क्यो आज तक भटकता फिर रहा था? यह मुझसे मांगता है और हम भगवान से, तो वाकई में हम भी क्या भीखारी ही हैं? मुझे लगा कि वह मेंरे लिये भीखारी नही, बल्कि वटवृक्ष है और मैं बुद्ध बन गया।