Monday, May 13, 2013


हाय री हिन्दी, वाह री हिन्दी

भारत सरकार की राजभाषा नीति से संबंधित जारी किये गये राजभाषा अधिनियम, नियम व प्रावधानों के अनुसार केंद्रीय सरकारी कार्यालयों में सबसे ज्यादा सक्रियता हिन्ही दिवस/पखवाड़ा/माह तथा हिन्दी कार्यशालाओं के आयोजन में रहता है जहां प्रशासनिक प्रधान के साथ-साथ निचले स्तर तक के कर्मचारियों की सहभागिता सिर्फ दिखावापन, आंकड़ेबाजी, चापलूसी, कुछ राशियों का कुछ को पुरस्कार, जो प्रायः धूम-फिर कर उन्ही को मिलता है, मिठाई तथा फाइल फोल्डर वितरण तक ही मुख्यतः सीमित रहता है और इसमें निर्थक ढंग से जनता के पैसों का काफी अपव्यय किया जाता है। राजभाषा हिन्दी के प्रगामी प्रयोग से संबंधित तिमाही प्रगति-रिपोर्ट, छमाही रिपोर्ट तथा वार्षिक रिपोर्ट एक भद्दा मजाक है जिसकी सार्थकता सिर्फ किसी तरह ऐन-प्रक्रेन भेज देने तक ही सीमित है जिसे भेजनेवाला तथा पानेवाला दोनों को ही पहले से पता होता है कि यह देखने लायक नहीं है।
किसी भी कार्यालय की वास्तविकता जानने के लिये सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 6(1) के अंतर्गत मात्र 10 रुपये के शुल्क देकर आप आसानी से सूचना प्राप्त कर सकते हैं और इसके लिये  ज्यादा से ज्यादा आवेदन हिन्दी में ही देने का प्रयास करें।
केन्द्रीय सरकारी कार्यालयों में राजभाषा हिन्दी के अनुपालन के लिये अबतक जितने भी आदेश, अधिसूचना, कार्यालय ज्ञापन आदि जारी किये जा चुके हैं, वे काफी पर्याप्त हैं और सिर्फ जरुरत हैं ईमानदारी और दृढ़ता से इसके अनुपालन की। यह भी अजीब विडंबना है कि सिर्फ हिन्दी के अनुपालन में ही अनुनय-विनय की बात कही जाती है जबकि भारत सरकार के किसी भी आदेश में ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं है। इस संबंध में प्राय़ः एक बेतुका तर्क भी दिया जाता है जिसे अधिकाशतः हिन्दी अधिकारी व सहायक निदेशक सामान्यतः हिन्दी कार्यशाला में भी दिया करते हैं (कुच लोगों को खुश करने के लिये ताकि अगले बार भी कुछ रुपये के मानदेय प्राप्त करने के लिये उन्हें ही कार्यशाला में पुनः बुलाया जाये) कि फांसी की सजा का प्रावधान होने के बावजूद भी क्यों इस तरह के अपराध हुआ करते हैं। इसलिये सरकारी कार्यालयों में हिन्दी की अवेहलना पर सख्ती किया जाना उचित नहीं समझा जाता है और अनुनय-विनय से ही काम चलाया जाता है। यह बिल्कुल एक गुमराह करने वाला कुतर्क युक्ति है।
किसी भी सरकारी अधिकारी या कर्मचारी अथवा दोनों द्वारा सरकारी आदेश को नहीं मानना एक गंभीर अपराध है और इसके लिये अनुशासनात्मक व दंडणात्मक कार्रवाई की केंद्रीय सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण एवं अपील), नियमावली, 1965 में पर्याप्त व्यवस्था है। सरकारी आदेश का अवहेलना का यह नियम  हिन्दी की अवेहलना के लिये भी लागू होती है और इसके लिये बंगले झांकने के बजाये आप अपने स्तर से आप संघर्ष प्रारंभ करे ताकि राष्ट्र निर्माण में हिन्दी की उपयोगिता, लोकप्रियता और सार्थकता को एक नया आयाम देने में आप अपनी भूमिका निर्धारित कर सकते हैं और इसके लिये शस्त्र के रुप में आपके पास सूचना का अधिकार अधिनियम काफी मददगार साबित होगा।

Monday, February 25, 2013


आदमी जबसे डसने लगा है
उसके जहर से साँप भी मरने लगा है।।

मैंने पूछ गुलाब से --
तुम्हारी सुंदरता, कोमलता और खुशबू का है क्या राज !
उसने मुस्कुराकर कहा –
कांटो पर चल कर ही मैंने, पाया है जीने का यह अंदाज ।।



मिलना हुआ था
                --- अरुण सिन्हा
तुम नहीं मिले कोई गम नहीं
तुम्हें भी कोई गम नही ।
क्योंकि मिलने के पहले से ही
हम दोनों जानते थे
कि होगा एक दिन बिछुड़ना ।
फिर भी जरुरी था तुम्हारा हमारा मिलना
क्योंकि हम दोनों मिले थे निःस्वार्थ से ।
तुम्हें भय नहीं था कुछ खोने का
मुझे भी लोभ नहीं था कुछ पाने का ।
था यह सिर्फ आकर्षण स्त्री पुरुष होने का
जैसे मिलना हुआ था राधा और कृष्ण का ।
n  अरुण सिन्हा, दिनांक 14.2.2013

Thursday, November 29, 2012




                    षडयंत्र में फंसा हूं
                           --अरुण सिन्हा
( वर्ष 2002 में लिखी गयी मेंरी कविता )


यह षडयंत्र है पृथ्वी का –
जो खुद अपने अक्ष पर घुमता है
और कर जाता है मेंरी परिक्रमा
सामने रख अपना एक अंश,
दूसरा छुपा लेता है।
और छोड़ जाता है मेंरे नाम-
उगना  और  डूबना।
मैं बिल्कुल विवश हो—
आग का गोला बना रह जाता हूं
अपने कर्तव्य बोध पर अडिग हूं,
पर लाचार हूं, पृथ्वी की तरह –
मैं मौसमी चोला नहीं बदल सकता
     
      थाम लेता है कभी बादलों के कवच से
      मेंरी जलती व्यथा को
      फिर निशा में अपने छूपे अंश को ढ़ाल लेता है
      मेंरे ही उष्ण से ले ऱौशनी को
      चाँद पर छिड़क चाँदनी का सुख पा लेता है
      और कभी छल कर मुझसे ही छूपा लेता है
      अपमान का ग्रहण भी
मेंरे ही हिस्से छोड़ जाता है
मैं जला हूं, सदियों-सदियों से जला हूं
फिर भी अपने जलने की व्यथा नहीं कहता
इस जलन में भी रोशनी ही दे जाता हूं
सत्य यह है कि मैं बिल्कुल स्थिर हूं
और सदियों-सदियों से,
पृथ्वी के षडयंत्र में फंसा हूं ।

          --- अरुण सिन्हा

Wednesday, November 28, 2012

                                बेचारा दिल अकेला पड़ा रह गया

                                                                                   --- अरुण  सिन्हा
(वर्ष 2002 में लिखी गयी मेंरी कविता)

मेंरे दिल के पास एक छोटा-सा दरवाजा था
पूंजी के नाम पर वही केवल एक दिल था
विश्वास की कड़ी थी, अपनत्व का चौखट था
आबाध प्रवेश किया करती थी--
सुकोमल भावनाएं,  निश्चछल आकांक्षाए,
ऊंचे विचार, ऊंचे आदर्श और गंगा की पवित्रता में--
तैरा करता था मेंरा वह दिल।
                 
खुला दरवाजा देख कर, दहलिज को लांघ कर-
                  प्रवेश कर गया कोई
                  दिल को उल्टा-पल्टा और सहलाया फिर
                  दिल भी दिल से जुड़ गया जैसे
                  मिल गया हो उसको अपना कोई

मादक-सी लगने लगी थी--
 चाँद का उभरना और दौड़ना
चांदनी चादर के आंचल में राते कटती थी-
कभी सो कर, तो कभी जाग कर,
तारों से इशारों में बाते कर लिया करता था
बादलों से भी तेज दौड़ पड़ती थी कल्पनाएं
थम-सा गया था सूर्य का भी करवट बदलना
                 
हठात, एक दिन दरवाजा खुला रह गया
                  बेचारा दिल अकेला पड़ा रह गया
                  सिसकता दिल, टूटा दिल, बेचैन दिल--
                  सूने दरवाजे को निहारता रह गया
                              ---- अरुण सिन्हा

 

Monday, November 5, 2012

......... हे पार्थ ! विजय भवः ।


        हे पार्थ ! इस पृथ्वी पर जब-जब अत्याचार, अन्याय, बेईमानी, अराजकता, पाप, कुकर्म आदि सीमा को पार कर बढ़ता जायेगा तब-तब हर युग में मैं जन्म लेता रहूंगा और जब तक इनका संघार नही कर लूंगा मैं चैन से नही बैठूंगा। मैं हर युग में हमेशा न्याय के साथ खड़ा तुम्हे मिलूंगा। है पार्थ ! इस युद्धभूमि में आज तुम्हारे साथ मैं खड़ा हूं और आज भी मैं वचनबद्ध हूं कि अस्त्र नहीं उठा सकता (यानि राजनीति में नहीं जाऊंगा) । है, अर्जुन, तुम तो किसी भी शर्त से नहीं बंधे हो। फिर उठो, आज तुम्हारा अस्त्र राजनीति बचा है,कूद जाओ इसमें। पार्ष ! राजनिति में आना किसी की बपौती नही है। तुमने शांति के सारे मार्ग अपना लिये। मैं भी था तुम्हारे साथ, सिर्फ जनलोकपाल बिल ही तो मांगा था, कैसा धोखा और अपमान मिला ! भ्रष्टाचार से निर्मुक्त भारत का निर्माण ही तो चाहा था जहां भ्रष्टाचारियो को दंड का प्रावधान सुनिश्चित किया जाना था। हम दोलों को चोर तक कहा गया। आखिर यह भी घोशित करना पड़ा कि देश में ऐसा कानून तो बना लिया जाये और पहला मामला मेंरे ऊपर ही  चलाया जाये और दोषी साबित होने पर मूझे दंडित भी कर दिया  जाये।  पार्थ ! उधर से पितामह भीष्म, गुरु द्रोण, कृपाचार्य आदि सभी लोग थे, जो बोल सकते थे वे सब के सब विल्कुल मौन बैठ गये है (जैसे संसद की कार्रवाई) । सब के सब या तो भयभीत है या किसी न किसी मजबूरी से बंधे हूये है ।   धृतराष्ट्र (यानि प्रधानमं....) एवं गांधारी (यूपीए की अध्यक्षा) तो सत्ता के मद एवं पुत्रमोह (नाम नही वर्णन करुंगा,आप समझदार है ही) में अंधे हैं, एक को तो कुछ दिखता भी नही और जिसको दिखता है वह आंखो पर पट्टी बांध रखे हुये है और उनके लिये देश से बड़ा पुत्रमोह है। बड़े-बड़े सम्मानित पद खैरात में बांटे जा रहे हैं, प्रतिभा के स्थान पर चाटूकारिता का मापदंड राजसत्ता के लिये हो गया है। विपक्ष कमजोर है और भय से कोई प्रतिवाद तक नही करता। देश मे लोकतंत्र के नाम पर द्रोपदी का चीर हरण हो रहा है। दुर्योधन (कांग्रेस) सत्ता के नशे में चूर है, शकुनी भी कई है। वे जानते है कि  कर्ण जैसे योद्धा (मुलायम और माया .. और .... ) मजवूरीवश ही सही  इस घड़ी में भी उनके साथ खड़ा है, इसलिये इनके सिंहासन को फिल्हाल कोई खतरा भी नही है।   है पार्थ ! जब मैं मांगा था कि जनलोकपाल पर एक कानून बने, कैसा ड्रामा किया गया, मुझे सैलुट तक दिया गया, फिर भी बात नही बनी तो कहा गया कि चुनाव के यूद्ध में आओ। हे गांडीवधारी अर्जुन, फिर यही एकमात्र विकल्प हमारे पास बचा है। षडंयंत्र का लाक्षागृह तो तुम्हे याद ही होगा। ये सब तुम्हारे ही बंधू-बांधव है जो अरजकता की सीमा को लांघते जा रहे है। यदि इस समय भी औरो की तरह चूप बैठोगे तो इतिहास तुम्हे कभी माफ नही करेंगा। लोगो को पार्थ. तुमसे बहुत सारी उम्मीदे है, उनकी उम्मीदो पर खड़े उतरो। पार्थ ! तुम्हारी लड़ाई लम्बी है, विरोधियो के पास ताकत है, संख्याबल में भी वे तुमसे अधिक है, उनके पास छल- कपट है, फिर भी तुम घबराओ नही। युद्ध हौसलो से जीता जाता है। हे पार्थ, न्याय का पक्ष तुम्हारे साथ  है, तुम निश्चित विजय होगे क्योंकि मैं भी न्याय के पक्ष में तुम्हारे साथ खड़ा हूं और अंतर सिर्फ इतना है कि मैं हथियार उठा नही सकता, वचनबद्ध हूं, परन्तु तुम तो किसी भी बंधन से बंधे नही हो, न लोभ हे, न छल-कपट  है, न अहंकार है, वैसे भी न्याय और त्याग करना तुम जानते भी हो (इतनी प्रतिष्ठित नौकरी छोड कर)। हे कौतंय, फिर तुम्हे राजनीति में आने की बार-बार चुनौती भी तो मिलती रही है और जिसे तुमने स्वीकार भी किया है, बार-बार के तुम्हारे सत्य के तरकस से निकला हुआ तीर तुम्हारे  भ्रष्टाचार के शत्रुओ को नाश कर देगा, फिर  तुम रण क्षेत्र में आये भी नही हो कि  तुम्हारे प्रतिद्वंदी अभी से ही कहना प्रारंभ कर दिये है  कि तुम कोई न कोई वज्र अस्त्र  छोड़ रहे हो, फिर आगे के युद्ध के लिये तो तुम्हारे तरकस में अभी ब्रह्मास्त्र भी तो है।
      अतः हे पार्थ, अब तो रणभूमि सज चुका है। यह युद्ध अब न्याय और अन्याय के बीच का है। और इतिहास गवाह भी है कि हर युग में आखरी विजय न्याय की ही होती है और फिर न्याय के पक्ष में मैं भी तुम्हारे साथ इस युद्धभूमि में आज  खड़ा हूं सिर्फ अंतर यह है कि मैं हथियार (राजनीसि) नही उठाने की अपनी वचनबद्धता में वंधा हूं और तुम सभी बंधनो से मुक्त हो, फिर  हम दोनों का उद्देश्य भी तो  एक ही है -- न्याय की प्राप्ति, सत्य का स्थापना और भारत को गौरवशाली बनाना। उठो, इस सपने को साकार करो, रण क्षेत्र तुम्हारा इंतजार कर रहा है।
............. हे पार्थ ! विजय भवः ।