षडयंत्र में फंसा हूं
--अरुण
सिन्हा
( वर्ष 2002 में लिखी गयी मेंरी कविता )
यह षडयंत्र है पृथ्वी का –
जो खुद अपने अक्ष पर घुमता है
और कर जाता है मेंरी परिक्रमा
सामने रख अपना एक अंश,
दूसरा छुपा लेता है।
और छोड़ जाता है मेंरे नाम-
उगना और डूबना।
मैं बिल्कुल विवश हो—
आग का गोला बना रह जाता हूं
अपने कर्तव्य बोध पर अडिग हूं,
पर लाचार हूं, पृथ्वी की तरह –
मैं मौसमी चोला नहीं बदल सकता
थाम लेता है कभी बादलों के कवच से
मेंरी जलती व्यथा को
फिर निशा में अपने छूपे अंश को
ढ़ाल लेता है
मेंरे ही उष्ण से ले ऱौशनी को
चाँद पर छिड़क चाँदनी का सुख पा
लेता है
और कभी छल कर मुझसे ही छूपा लेता
है
अपमान का ग्रहण भी
मेंरे ही हिस्से छोड़ जाता
है
मैं जला हूं, सदियों-सदियों
से जला हूं
फिर भी अपने जलने की व्यथा
नहीं कहता
इस जलन में भी रोशनी ही दे
जाता हूं
सत्य यह है कि मैं बिल्कुल
स्थिर हूं
और सदियों-सदियों से,
पृथ्वी के षडयंत्र में फंसा
हूं ।
--- अरुण सिन्हा
वर्ष 2013 आपको सपरिवार शुभ एवं मंगलमय हो ।
ReplyDeleteशासन,धन,ऐश्वर्य,बुद्धि मे शुद्ध-भाव फैलावे---विजय राजबली माथुर