Thursday, November 29, 2012




                    षडयंत्र में फंसा हूं
                           --अरुण सिन्हा
( वर्ष 2002 में लिखी गयी मेंरी कविता )


यह षडयंत्र है पृथ्वी का –
जो खुद अपने अक्ष पर घुमता है
और कर जाता है मेंरी परिक्रमा
सामने रख अपना एक अंश,
दूसरा छुपा लेता है।
और छोड़ जाता है मेंरे नाम-
उगना  और  डूबना।
मैं बिल्कुल विवश हो—
आग का गोला बना रह जाता हूं
अपने कर्तव्य बोध पर अडिग हूं,
पर लाचार हूं, पृथ्वी की तरह –
मैं मौसमी चोला नहीं बदल सकता
     
      थाम लेता है कभी बादलों के कवच से
      मेंरी जलती व्यथा को
      फिर निशा में अपने छूपे अंश को ढ़ाल लेता है
      मेंरे ही उष्ण से ले ऱौशनी को
      चाँद पर छिड़क चाँदनी का सुख पा लेता है
      और कभी छल कर मुझसे ही छूपा लेता है
      अपमान का ग्रहण भी
मेंरे ही हिस्से छोड़ जाता है
मैं जला हूं, सदियों-सदियों से जला हूं
फिर भी अपने जलने की व्यथा नहीं कहता
इस जलन में भी रोशनी ही दे जाता हूं
सत्य यह है कि मैं बिल्कुल स्थिर हूं
और सदियों-सदियों से,
पृथ्वी के षडयंत्र में फंसा हूं ।

          --- अरुण सिन्हा

Wednesday, November 28, 2012

                                बेचारा दिल अकेला पड़ा रह गया

                                                                                   --- अरुण  सिन्हा
(वर्ष 2002 में लिखी गयी मेंरी कविता)

मेंरे दिल के पास एक छोटा-सा दरवाजा था
पूंजी के नाम पर वही केवल एक दिल था
विश्वास की कड़ी थी, अपनत्व का चौखट था
आबाध प्रवेश किया करती थी--
सुकोमल भावनाएं,  निश्चछल आकांक्षाए,
ऊंचे विचार, ऊंचे आदर्श और गंगा की पवित्रता में--
तैरा करता था मेंरा वह दिल।
                 
खुला दरवाजा देख कर, दहलिज को लांघ कर-
                  प्रवेश कर गया कोई
                  दिल को उल्टा-पल्टा और सहलाया फिर
                  दिल भी दिल से जुड़ गया जैसे
                  मिल गया हो उसको अपना कोई

मादक-सी लगने लगी थी--
 चाँद का उभरना और दौड़ना
चांदनी चादर के आंचल में राते कटती थी-
कभी सो कर, तो कभी जाग कर,
तारों से इशारों में बाते कर लिया करता था
बादलों से भी तेज दौड़ पड़ती थी कल्पनाएं
थम-सा गया था सूर्य का भी करवट बदलना
                 
हठात, एक दिन दरवाजा खुला रह गया
                  बेचारा दिल अकेला पड़ा रह गया
                  सिसकता दिल, टूटा दिल, बेचैन दिल--
                  सूने दरवाजे को निहारता रह गया
                              ---- अरुण सिन्हा

 

Monday, November 5, 2012

......... हे पार्थ ! विजय भवः ।


        हे पार्थ ! इस पृथ्वी पर जब-जब अत्याचार, अन्याय, बेईमानी, अराजकता, पाप, कुकर्म आदि सीमा को पार कर बढ़ता जायेगा तब-तब हर युग में मैं जन्म लेता रहूंगा और जब तक इनका संघार नही कर लूंगा मैं चैन से नही बैठूंगा। मैं हर युग में हमेशा न्याय के साथ खड़ा तुम्हे मिलूंगा। है पार्थ ! इस युद्धभूमि में आज तुम्हारे साथ मैं खड़ा हूं और आज भी मैं वचनबद्ध हूं कि अस्त्र नहीं उठा सकता (यानि राजनीति में नहीं जाऊंगा) । है, अर्जुन, तुम तो किसी भी शर्त से नहीं बंधे हो। फिर उठो, आज तुम्हारा अस्त्र राजनीति बचा है,कूद जाओ इसमें। पार्ष ! राजनिति में आना किसी की बपौती नही है। तुमने शांति के सारे मार्ग अपना लिये। मैं भी था तुम्हारे साथ, सिर्फ जनलोकपाल बिल ही तो मांगा था, कैसा धोखा और अपमान मिला ! भ्रष्टाचार से निर्मुक्त भारत का निर्माण ही तो चाहा था जहां भ्रष्टाचारियो को दंड का प्रावधान सुनिश्चित किया जाना था। हम दोलों को चोर तक कहा गया। आखिर यह भी घोशित करना पड़ा कि देश में ऐसा कानून तो बना लिया जाये और पहला मामला मेंरे ऊपर ही  चलाया जाये और दोषी साबित होने पर मूझे दंडित भी कर दिया  जाये।  पार्थ ! उधर से पितामह भीष्म, गुरु द्रोण, कृपाचार्य आदि सभी लोग थे, जो बोल सकते थे वे सब के सब विल्कुल मौन बैठ गये है (जैसे संसद की कार्रवाई) । सब के सब या तो भयभीत है या किसी न किसी मजबूरी से बंधे हूये है ।   धृतराष्ट्र (यानि प्रधानमं....) एवं गांधारी (यूपीए की अध्यक्षा) तो सत्ता के मद एवं पुत्रमोह (नाम नही वर्णन करुंगा,आप समझदार है ही) में अंधे हैं, एक को तो कुछ दिखता भी नही और जिसको दिखता है वह आंखो पर पट्टी बांध रखे हुये है और उनके लिये देश से बड़ा पुत्रमोह है। बड़े-बड़े सम्मानित पद खैरात में बांटे जा रहे हैं, प्रतिभा के स्थान पर चाटूकारिता का मापदंड राजसत्ता के लिये हो गया है। विपक्ष कमजोर है और भय से कोई प्रतिवाद तक नही करता। देश मे लोकतंत्र के नाम पर द्रोपदी का चीर हरण हो रहा है। दुर्योधन (कांग्रेस) सत्ता के नशे में चूर है, शकुनी भी कई है। वे जानते है कि  कर्ण जैसे योद्धा (मुलायम और माया .. और .... ) मजवूरीवश ही सही  इस घड़ी में भी उनके साथ खड़ा है, इसलिये इनके सिंहासन को फिल्हाल कोई खतरा भी नही है।   है पार्थ ! जब मैं मांगा था कि जनलोकपाल पर एक कानून बने, कैसा ड्रामा किया गया, मुझे सैलुट तक दिया गया, फिर भी बात नही बनी तो कहा गया कि चुनाव के यूद्ध में आओ। हे गांडीवधारी अर्जुन, फिर यही एकमात्र विकल्प हमारे पास बचा है। षडंयंत्र का लाक्षागृह तो तुम्हे याद ही होगा। ये सब तुम्हारे ही बंधू-बांधव है जो अरजकता की सीमा को लांघते जा रहे है। यदि इस समय भी औरो की तरह चूप बैठोगे तो इतिहास तुम्हे कभी माफ नही करेंगा। लोगो को पार्थ. तुमसे बहुत सारी उम्मीदे है, उनकी उम्मीदो पर खड़े उतरो। पार्थ ! तुम्हारी लड़ाई लम्बी है, विरोधियो के पास ताकत है, संख्याबल में भी वे तुमसे अधिक है, उनके पास छल- कपट है, फिर भी तुम घबराओ नही। युद्ध हौसलो से जीता जाता है। हे पार्थ, न्याय का पक्ष तुम्हारे साथ  है, तुम निश्चित विजय होगे क्योंकि मैं भी न्याय के पक्ष में तुम्हारे साथ खड़ा हूं और अंतर सिर्फ इतना है कि मैं हथियार उठा नही सकता, वचनबद्ध हूं, परन्तु तुम तो किसी भी बंधन से बंधे नही हो, न लोभ हे, न छल-कपट  है, न अहंकार है, वैसे भी न्याय और त्याग करना तुम जानते भी हो (इतनी प्रतिष्ठित नौकरी छोड कर)। हे कौतंय, फिर तुम्हे राजनीति में आने की बार-बार चुनौती भी तो मिलती रही है और जिसे तुमने स्वीकार भी किया है, बार-बार के तुम्हारे सत्य के तरकस से निकला हुआ तीर तुम्हारे  भ्रष्टाचार के शत्रुओ को नाश कर देगा, फिर  तुम रण क्षेत्र में आये भी नही हो कि  तुम्हारे प्रतिद्वंदी अभी से ही कहना प्रारंभ कर दिये है  कि तुम कोई न कोई वज्र अस्त्र  छोड़ रहे हो, फिर आगे के युद्ध के लिये तो तुम्हारे तरकस में अभी ब्रह्मास्त्र भी तो है।
      अतः हे पार्थ, अब तो रणभूमि सज चुका है। यह युद्ध अब न्याय और अन्याय के बीच का है। और इतिहास गवाह भी है कि हर युग में आखरी विजय न्याय की ही होती है और फिर न्याय के पक्ष में मैं भी तुम्हारे साथ इस युद्धभूमि में आज  खड़ा हूं सिर्फ अंतर यह है कि मैं हथियार (राजनीसि) नही उठाने की अपनी वचनबद्धता में वंधा हूं और तुम सभी बंधनो से मुक्त हो, फिर  हम दोनों का उद्देश्य भी तो  एक ही है -- न्याय की प्राप्ति, सत्य का स्थापना और भारत को गौरवशाली बनाना। उठो, इस सपने को साकार करो, रण क्षेत्र तुम्हारा इंतजार कर रहा है।
............. हे पार्थ ! विजय भवः ।

    

Saturday, November 3, 2012

जो आज भी याद है

        जीवन में कुछ ऐसी घटनाये घटती है जिसे आदमी भूल नही पाता है, भले ही वो घटना सुखद या दुःखद ही क्यो न हो। ये घटनाये हमारी अनुभूतियो को भी प्रभावित करती है और ये अनुभूतियां यादो में कैद हो जाती हैं। और ये यादे दस्तक दे कर कभी-कभी मन के झरोखो से निकल कर बार-बार जीवन्त करती रहती है। और आज मैं उसी जीवंत तस्वीर को रखने का प्रयास कर रहा हूं।
         लगभग बीस वर्ष से भी अधिक पुरानी यह घटना है लेकिन आज भी उतनी ही ताजी है। मैं पटना सिटी स्थित अपने ससुराल से अपना घर चिरैयांटाड़ के लिये  गंगा ब्रिज के नीचे के रास्ते से अपनी पत्नी तथा दो छोटे बच्चो के साथ स्कुटर से लौट रहा था। चह रास्ता काफी सुनसान रहा करता था परंतु शार्टकट के चक्कर में रात के दस बजने के बावजूद भी घुस आया था। जाड़ा का दिन था और सड़के भी ज्यादा सुनसान थी। सुनसान सड़को पर मैं सक्टर दौड़ाये जा रहा था कि अचानक स्कुटर बंद हो गया। थोड़ी देर के जाच-पड़ताल के बाद पाया कि  स्कुटर का पेट्रौल रिजर्व होने के बाद के समाप्ति का है। आप ससुराल गये हो और फिर छोटा साला हो तो  उसका भी अपने जीजा के स्कुटर पर पूरा अधिकार तो बनता ही है और वहां से निकलते समय प्रतिक्षा करा  कर ही वह मेंरे हवाले स्कूटर को किया था। जाने समय ही उसमें पेट्रोल भराया था इसलिये इस पर निकलते समय ध्यान देना भी मैं उचित नही समझा. फिर देरी हो गयी थी और जल्दबाजी भी थी। लेकिन ऐसे संकट आ जाने पर उसपर क्रोध भी बहुत आ रहा था और गालियां भी निकल रही थी, परंतु पत्नी चूप थी क्योकि पत्नी को पता था कि ज्यादा असभ्य गाली मैं मुंह से नही निकाल पाता हूं और जो निकाल पा रहा था वह रिश्ते को ही इंगित करता था। पतुनी थोड़ा उसका पक्ष और थोड़ा मेंरा पक्ष रख कर सबकुछ बैलेंस रख रही थी।  इतने सन्नाटे रास्ते में डर लगना स्वाभाविक है। फिर पेट्रोल पम्प भी वहां से दो किलोमीटर से अधिक दूर था। भयभीत कदमो से हमलोग रास्ता तय करते बढ़ रहे थे। कभी-कभी एकाद गाड़ियां तेजी से सरपट गुजर जा रही थी। भय और मदद- दोनों के बीच से गुजर रहे थे। अचानक एक ट्रक भी गुजरा, फिर आगे जा कर रुक गया। अब भय तेजी से अंदर हमला करने लगा। आदमी का स्वभाव ही है कि वह ज्यादा खराब ही सोचता है और भय के क्षण में तो और भी ज्यादा। पीछे लौटने का भी विकल्प मैं खो चुका था। पत्नी का ज्ञान उपदेश भी ऐसे समय ज्यादा चालू था। पुरुष का स्वाभाव है कि यदि वह वाकई में डरता भी है तो औरत के सामने इसे प्रकट नही कर पाता है, मैं भी कोई अपवाद नही था। अंदर से डर भी था पर बाहर से पत्नी को अपने साहसी होने का हनुमान चालीसा की तरह बखान भी किये जा रहा था। जब आपके पास सारे विकल्प खो जाते हैं तो अपने-आप हिम्मत का विकल्प अचानक आ जाता है। ऐसा ही मैं भी अपने को तैयार कर लिया था। सड़के पूरी तरह से सूनी थी और योद्धा की तरह हम लोग आगे बढे़ जा रहे थे। देखा सामने दे व्यक्ति गाड़ी को रोके खड़े थे।
          उनमें से एक ने पूछा -- भैया, क्या आपकी गाड़ी में पेट्रौल खत्म है ?
          हां भाई, पेट्रौल नहीं है । -- ऐसा कह कर बिना रुके बढ़ने लगे। अविश्वास और आशंका दोनो का मैं इस      
          समय कैदी था ।
          उसने फिर कहा -- भैया, जरा ठहर जाईये, यहां से पेट्रौल पम्प बहुत दूर है, फिर आपके साथ परिवार
          दो-दो बच्चा भी है, मैं पेट्रौल आपको देता हूं। -- और उसने बिना मेंरी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किये पीछे
          बंधी बाल्टी निकाला और बाल्टी भर  पेट्रौल  मेंरे स्कुटर में भर दिया।
          घबराहट में मैं यह भी नही देख पाया था कि यह पेट्रौल टैंक वाली गाड़ी थी।
          मैं तो उसके इस ऐहसान से बिल्कुल दब सा गया था, कीमत से इसे चूका भी नही पा सकता था, फिर भी
          कहा-- मेंरे भाई, आपके इस ऐहसान को मैं चुका नही सकता, फिर भी मेंरी आत्मा की संतुष्टि के लिये
          थोड़ा-सा यह रुपया मेंरे तरफ से रख ले, अपने बच्चो को मेंरी तरफ से मिठाई खरीद कर दे देंगे, और
          मैं उसकी जेब मे रुपया डालने लगा। लेकिन लाख तर्क के बावजूद भी  वह रुपया नही लिया और गाड़ी में
बैठ कर चला गया। मैं आज उसे भले ही चेहरे से नही पहचान पाऊंगा लेकिन उसने मेंरे मन में एक अमिट छाप छोड़ दी है जो मेंरे साथ अब भी हर समय साथ रहता है और मेंरे दिल और दिमाग दोनो को इस नये पूजा की विधि से मुझे प्रेरित करता रहता है। बिना स्वार्थ का सेवा -- । भगवान भी हमें बहुत देता है और हम उसकी इच्छा जाने बगैर चढ़ावा चढा़ कर उसके दान को हल्का नहीं कर दे रहे हैं... क्या दान दे कर हम उसे नही भूल जा रहे है ......, ठीक उसी तरह यदि वह ट्रक ड्राईवर कुछ कीमत ले लेता तो शायद हम आज भी उसे याद नहीं रख पाते....., निःस्वार्थ सेवा ही ईश्बर है जिसे चाह कर भी भुलाया नही जा सकता। फिर हम क्यो भटक रहे है, क्या भगवान इतना छोटा है कि बदले में कुछ पाने की उसकी भी कोई आकांक्षा है।